शाहजहांपुर जिले के महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खान, एवं रोशन सिंह इनके बारे में जितना कहा जाए उतना कम है अपनी प्राणों के बारे में न सोच कर देश के बारे में सोचा ऐसे महान पुरुषों को शत शत नमन करते है ।
पंडित राम प्रसाद 'बिस्मिल' (11 जून 1897 - 19 दिसम्बर 1927) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की क्रान्तिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे, जिन्हें 30 वर्ष की आयु में ब्रिटिश सरकार ने फाँसी दे दी। वे मैनपुरी षड्यन्त्र व काकोरी-काण्ड जैसी कई घटनाओं में शामिल थे तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सदस्य भी थे।
कान्तिकारी ठाकुर रोशन सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जनपद में फतेहगंज से १० किलोमीटर दूर स्थित गाँव नबादा में २२ जनवरी १८९२ को एक राजपूत परिवार में हुआ था। इनकी माता जी का नाम कौशल्या देवी जी एवं पिता जी का ठाकुर जंगी सिंह जी था। पूरा परिवार आर्य समाज से अनुप्राणित था। आप पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। असहयोग आन्दोलन में उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर और बरेली जिले के ग्रामीण क्षेत्र में आपने अद्भुत योगदान दिया था।
ख़ान का जन्म ब्रितानी भारत के शाहजहाँपुर में शफ़िक़ुल्लाह खान और मज़रुनिस्सा के घर हुआ। वो एक मुस्लिम पठान परिवार के खैबर जनजाति में हुआ था।वो छः भाई बहनों में सबसे छोटे थे।
वर्ष 1920 में महात्मा गांधी ने भारत में ब्रितानी शासन के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया। लेकिन वर्ष 1922 में चौरी चौरा कांड के बाद महात्मा गांधी ने आन्दोलन वापस ले लिया।[8]
इस स्थिति में खान सहित विभिन्न युवा लोग खिन्न हुए। इसके बाद खान ने समान विचारों वाले स्वतंत्रता सेनानियों से मिलकर नया संगठन बनाने का निर्णय लिया और वर्ष 1924 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया।[9]
फांसी वाले दिन के हालात
फाँसी की उस पहली रात ठाकुर साहब कुछ घण्टे सोये फिर देर रात से ही ईश्वर-भजन करते रहे। प्रात:काल शौचादि से निवृत्त हो यथानियम स्नान ध्यान किया कुछ देर गीता-पाठ में लगायी फिर पहरेदार से कहा-“चलो।” वह एकदम से हैरान हो गया और सोचने लगा यह कोई आदमी है या देवता! काल-कोठरी को प्रणाम करते हुए ठाकुर साहब ने अपनी गीता हाथ में लेकर निर्विकार भाव से फाँसी घर की ओर चल दिये। फाँसी के फन्दे को चूमा फिर ज़ोर से तीन बार वन्दे मातरम् का उद्घोष किया और वेद-मन्त्र – “ओ३म् विश्वानि देव सवितुर दुरितानि परासुव यद भद्रम तन्नासुव” – का जाप करते हुए फन्दे से झूल गये।
इलाहाबाद में नैनी स्थित मलाका जेल के फाटक पर हज़ारों की संख्या में स्त्री-पुरुष, युवा और बाल-वृद्ध एकत्र थे ठाकुर साहब के अन्तिम दर्शन करने व उनकी अन्त्येष्टि में शामिल होने के लिये। जैसे ही उनका शव जेल कर्मचारी बाहर लाये वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने नारा लगाया – “रोशन सिंह! अमर रहें!!” भारी जुलूस की शक्ल में शवयात्रा निकली और गंगा यमुना के संगम तट पर जाकर रुकी जहाँ वैदिक रीति से उनका अन्तिम संस्कार किया गया। फाँसी के बाद ठाकुर साहब के चेहरे पर एक अद्भुत शान्ति दृष्टिगोचर हो रही थी। मूँछें वैसी की वैसी ही थीं बल्कि गर्व से कुछ ज्यादा ही तनी हुई लग रहीं थीं जैसा कि इस चित्र में भी दिख रहा है। ठाकुर साहब को मरते दम तक बस एक ही मलाल था कि उन्हें फाँसी दे दी गयी, कोई बात नहीं। क्योंकि उन्होंने तो जिन्दगी का सारा सुख उठा लिया, परन्तु श्री बिस्मिल, अशफाक जी और श्री लाहिड़ी जी जिन्होंने जीवन का एक भी ऐशो-आराम नहीं देखा उनको इस बेरहम बरतानिया सरकार (British Government )ने फाँसी पर क्यों लटकाया? क्या उसके मन ज़रा भी दया का भाव नहीं आया?